वैसे तो मैं कभी भी अपने को धर्मनिरपेक्षता के दायरों से मुक्त नही कर पाया , ना ही कट्टर हिंदू ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने का ही मुझपर कोई असर रहा और न ही विश्व हिंदू परिषद् , शिवसेना, या bajrang दल के ब्रेन वाशिंग भाषणों से।
मुझ पर तब भी कोई असर नही हुआ जब हिंदू मुसलमानों की मौत का तांडव हुआ अयोध्या में। अफ्सोश हुआ था धर्मनिरपेक्षता की असफलता पर , अफसोश हुआ था मस्जिद के टूटने का, और निर्दोषों की मौत पर। पर मेरी धर्मनिरपेक्ष मानसिकता पर जरा सा भी असर नही हुआ । मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति हमेशा ही मेरे मन में एक सॉफ्ट कार्नर रहा हैं। विश्व हिंदू परिषद् का जन जागरण अभियान मेरे उस सॉफ्ट कार्नर को कभी प्रभावित नही कर सके।
ना ही मेरे दादा दादी, पिता-माँ का संकीर्ण मनोभाव। ज़रीना के घर चाय ..... हे भगवान् , नही बेटा तुम्हे उनके घर का नही खाना चाहिए । उनके घर मँआश बनता हैं, तुम्हे अपने कुल पूर्वजो की मर्यादा , नीति नियमो का पालन करना चाहिए।
एक चाय की प्याली जहाँ मेरे कुल पूर्वजो की मर्यादा अतिकर्म कर रही थी, और मैं था जो ज़रीना के सामने विवाह प्रस्ताव रख रहा था।
ज़रीना के प्रेम, उसके परिवार से मिली आत्मीयता मेरे उस सॉफ्ट कार्नर को और भी सॉफ्ट करती जा रही थी। उस आत्मीयता और प्रेम को मैं धर्मनिरपेक्षता ही समझता रहा , हमारी महान भारतीय संस्कृति की संरख्छिका।
ज़रीना जब भगवान् कसम खाती थी तो लगता ही नही था की वो स्वाभाविक नही हैं । वो अपनी कापियों का प्रारम्भ "श्री" या "जय सरस्वती माँ " से किया करती थी । ये सब मुझे बहुत अच्छा लगता ।
पर विवाह प्रस्ताव ? अरे हां ... वो तो मैं भूल ही गया था। मैंने ज़रीना से कहा " मेरे लिए विवाह प्रस्ताव आ रहे हैं, माँ की तबियत ठीक नही रहती सो परिवार वालो को अब मैं नही रोक सकता, मुझे शादी करनी होगी, क्योँ न हम कोर्ट मैरिज़ कर ले ? आज कल कोर्ट मैरिज़ काफ़ी आसान हैं । हम दोनों को पता था की मेरे घर वाले इस सम्बन्ध को कभी स्वीकार नही करेगे।
इसके बाद ज़रीना ने जो कुछ मुझसे कहा , मेरी धर्मनिरपेक्षता पर हलाँकि उसका भी कोई प्रभाव नही पड़ा , लेकिन उसकी सरते अविश्वश्नीय , मैंने उसकी सरतो को उसकी मजबूरिया समझकर अपने आपको धर्मनिरपेक्षता की जंजीरों में और जकड लिया । वो चाहती थी की मैं इस्लाम कबूल कर लू , मुझे किसी धर्म से कोई ऐतराज नही था , ना उनके सिधान्तो से , ना उनकी पूजा पद्धति से । इस्लाम के कठोर उपासना के नियम मुझे अच्छे लगते थे और मेरा भी मानना यही था की भगवान् निराकार ही हैं, मुझे अपने हिन्दुओ के साधू पंडित और ३६ करोड़ देवी देवताओं का अस्तित्व, पूजा , कर्मकांड ढोंग लगते थे। पर मैं एक इश्वर पर भरोषा करता हूँ और वही विश्वाश हमेशा मेरा सहारा बनता हैं।
ज़रीना की दूसरी शर्त सुनकर मेरा रग रग खौलने लगा । जो ज़रीना मेरे प्रेम में ये कहती थी के मैं वेगेतारियन हूँ, उसकी दूसरी शर्त थी के मैं गो मांश का भक्षण करू । मेरी आँखों के सामने अपनी माँ का चेहरा आ गया । जो रोज गाय को रोटी देती थी। बचपन में जब मैं बीमार रहता था तो वो गाय को रोटी मेरे हाथों से दिलवाती और गौ माता के पैर चुने को कहती। मेरे घर में एक तस्वीर रखी हुयी जिसमे गोऊ माता के अंग अंग में इश्वर का निवास बताया गया था। बचपन में एक बार मैं बहुत ज्यादा बीमार हुआ तो डॉक्टर ने मांश मछली सेवन करने का सुझाव दिया था, पर पिताजी ने साफ़ मन कर दिया के चाहे ये मर जाए पर मैं अपने धर्म को भ्रष्ट नही होने दूँगा, अगर इसके सरीर को शक्ति चाहिए तो वो गाय के दूध से पूरी हो जायेगी। और रोज माँ मुझे सुबह साम गाय का दूध पिलाने लगी। ऐसी अमृतमयी माँ का मांश भक्षण ?? मैंने ज़रीना ko त्याग दिया ।
और ज़रीना ने भी मुझे बधाई दी " अगर तुम्हे जीवन देने वाली माँ के तुम नही हो सकते तो मेरे लिए मैं तुमसे क्या आशा रखती ? इन सब्दो ने मेरा साहस तो बढाया ही साथ ही साथ धर्मनिरपेक्षता के charदिवारी का और मजबूत कर गया।
जब भी कश्मीर में हिंदू मरते तो मैं सीमापार से आतंकवाद (हमारे नेताओ की भाषा) सोचकर चुप हो जाता, और अगर एक दो कश्मीरी मुसलमान हलक होते तो मानवाधिकार के दुहाई देता । मेरी धर्मनिरपेक्षता ने कुछ ऐसा रूप ले लिया था के कारगिल yuddh के पश्चात मेरी भावनाए पाकिस्तान विरोधी तो हो गई पर धर्मनिरपेक्षता अपनी जगह अडिग थी। मेरा धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अवधीत ही रहा आजतक।
११ तारीख का मैं ब्रह्मपुत्र मेल में असम जाने के लिए बैठा, मेरी टिकेट दो पार्ट में थी, डेल्ही से कानपूर और कानपूर से तिनसुकिया । कानपूर में जब मैं अपनी बर्थ चेंज की तभी एक मुस्लिम परिवार कोच में आया । एक अब्बा अम्मा दो खाला और दो बच्चे । ६ जनों का परिवार। उनकी एक टिकेट दूसरे कोच की थी और मेरे मेरी और मेरे भाई के बर्थ १२ और १३ उनके बर्थो की सीरीज़ को बिगाड़ रही थी। मेरे सॉफ्ट कार्नर ने उनकी साड़ी प्रॉब्लम साल्व कर दी, चूंकि ये परिवार मुझसे ज्यादा बातचीत नही कर रहा था इस्सलिये हिलना मिलना नही हुआ।
उन बच्चो के खाला काफ़ी हसीं थी, (माफ़ करे मेरी नजर अभी उसकी तरफ़ पलट गई थी, बगल वाली बर्थ में ही तो उनींदी हो रही हैं ) इस लड़की की मासूमियत, खामोसी, मुस्कराहट किसी का भी कलेजा टटोल सकती हैं। आवाज में कानपुरी लहजा और शऊर तो गजब का , मजाल हैं जो बदन का एक रेशा भी दिख जाए। मैं उस्सकी पवित्रता और मासूमियत का फेन होता जा रहा था।
उन बच्चो के अब्बा ने किसी भी भिखारी को अभी तक खली हाथ नही लौटाया था । चाहे वो भजन गाता या अल्लाह के नाम पर माँगता, गाने गाता या झाडू लगाकर मांगता, झूठ मूठ के गूंगे गुन्गियो, लंगडे लंग्डियो, अंधे आंधियो, सभी को एक ही रेट से दिया जा रहा था १ रूपया । उसका ये भेदभाव परे व्यवहार , धर्म भेद से परे भीक्स्चा दान मुझे धर्मनिरपेक्षता को रेखांकित करता सा लगा।
रेल गाड़ी रूकती सरकती, राजधानी एक्स्प्रेस्सो को पास देती आज कामख्या पहुची। कामख्या भारत का प्रसिद्ध तीर्थ हैं , यहाँ नीलांचल पहाड़ पर माँ कामख्या का प्राचीन मन्दिर स्थित हैं। यहाँ पंडे पंडितो की भरमार होती हैं।
और यही वह घटना घटी जिसका प्रभाव मेरी धर्मनिरपेक्षता पर पड़ा हैं।
कल अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर इस्लामी उग्रवाद के शिकार हो गए। इसका अमेरिका और बाकी अधिकाँश देशो पर जो प्रभाव पड़ा हैं , अमेरिकी अंतर्मन को जिस मात्रा के झटके की कल्पना हम कर सकते हैं उससे भी बहुत जोर का झटका लगा हैं आज मेरी धर्मनिरपेक्षता को।
कामख्या स्टेशन पहुचते ही एक पंडितजी कोच में प्रवेश कर गए। उनके एक हाथ में एक डोलची थी , जिसमे माता की फोटो सजाई हुयी थी। और वे सभी को तिलक करते जा रहे थे व प्रसाद दिए जा रहे थे। मैं ऊपर वाली बर्थ पे लेता कुछ लिखता जा रहा था। और इधर उधर निहार भी रहा था। पंडितजी ने ऊपर वाले बर्थ यानी मेरी तरफ़ देखा पर या तो उन्होंने मुझे nastik जाना होगा या ऊपर वाली बर्थ तक उनके हाथ नही पहुचने की वजह से उन्होंने मुझे प्रसाद से वंचित रखा। और मैं भी विशेष आग्रही नही था।
जब पंडित जी उन खाला अम्मी और बच्चो को प्रसाद अनुगृहित कर रहे थे(अब्बा सोये हुए थे) तो वे सभी प्रसाद लेने में हिचक रहे थे। लेकिन पंडितजी के दुबारा अनुरोध लीजिये लीजिये कहने पर वो मना नही कर सके।
अब वे किन्ग्कार्ताव्यविमूद्दा से नजर आने लगे। बड़ी खाला के तो जिस हाथ में प्रसाद था वो कापने लगा।मासूम hasina खिड़की के किनारे बैठी थी, उसने चतुराई दिखाई। उसने सबके हाथ से प्रसाद के दाने अपने हथेली में ले लिए। और उसका हाथ धीमे धीमे खिड़की की ओर बढ़ने लगा, मुझे अहसास हो गया वो क्या करने वाली हैं, मैं ऊपर वाली बर्थ से ही झुककर अपना हाथ ज की मुद्रा में नीचे बढाया, पर मेरा हाथ उसे नजर आने से पहले ही उसकी हथेली खुल गई थी।
और जब उसने मेरे बढे हुए हाथो को देखा तो उसकी पलके झुक गई, तब से अब तक वो मुझसे नजरे नही मिला पाई हैं। आज इस घटना का प्रभाव मेरे धर्मनिरपेक्षता पर पड़ा hain । आज शायद मैं धर्मनिरपेक्ष नही रहा।
अब शायद मुझे ईद की सेवेयियो में वो मीठास नही नही मिलेगी जो आज से पहले मिलती थी।
No comments:
Post a Comment