चूमती थी आकाश
दर्प था उसको
अभेद्य था अजेय था
लाखो लाखो के सपने
जहाँ बनते थे , बुनते थे
वो सपनो के सहर का गुरुत्वाकर्षण
अब ना रहा।
ऐसे ही ढहते हैं सपने,
ऐसे ही नेस्तनाबूद हो रहा हैं सच
बुराईया जीत रही हैं
धर्म की हानि की सीमा क्या हैं प्रभु ?
कब आओगे?
दर्प तोड़ने का तो तुम्हे हक हैं
पर सपने तोड़ने का ?
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