Tuesday 30 September, 2008

शब्द गूम जायेगे, रचना न होगा कविता

शब्द गूम जायेगे रचना ना होगा कविता
भाव थम जायेगे
मन क्षुब्ध होगा
गीत गुंजन
न मधुर कलरव होगा
ऐसा ही होगा
दूषित मन , कुलषित ह्रदय
कंकड़ पत्थरो की कठोर दुनिया में॥

खून खराबो से त्रस्त दुनिया में
रंग- राग, नाच - नृत्य कहाँ ?
विध्वंस का तांडव होगा॥

फूलो की खुसबू मर जायेगी
पौधे कसमसाये से
वायु दम घोटती,
मौसम बदलती दुनिया में
और तड़पता मन, अकेला
प्रेम - बंधुत्व विहीन
भीड़ भरी दुनिया में
प्रदूषित दुनिया में
शब्द गुम जायेगे रचना न होगा कविता॥

अमेरिका से सवाल

हो सकता हैं
तुम बहुत ऊंचे हो
तुमपर विजय ..... ?
तुम अपराजेय

पर तुम्हारी ओर
ऊंचे सर ताकना
या छाती तान चलना
क्या दुस्साहस हैं ?

आत्मभिमान
स्वाभिमान
राष्ट्राभिमान क्या तुच्छ हैं ?
तेरे अहम् , युद्धोन्माद के सामने।

Monday 29 September, 2008

माँ

माँ
तेरे बेटे तेरे घर का चिराग
और मैं लक्ष्मी पराये घर की ?
वो कमजोर, बीमार, या भ्रष्ट
या वन्श्द्रोही
वो सहारा तुम्हारा
और मैं चंचला तुम पर बोझ ?

माँ
तुझे पता मैं नदिया, दरिया
तुम्हे पता मैं सागर तुम सी
रत्न कोख में मेरे पलेगे
सृष्टि मात्री प्यारी बनूँगी।

थोड़ा सा स्नेह हो निर्झर
सावन जैसी मेह बरसती
फ़िर देखो मेरी भी माँ
कन्या को माताये तरसती॥

भारत उदय - 3

एक सोच थी,
एक सपना था,
हर हाथ में मोबाइल हो (धीरुभाई का सपना)
की हर कान में गूंजे
एक मधुर घनघनाहट
(क्षमा करे फ़ोन की रिंग को घनघनाहट कहा जाता था)

काश उनकी आँखों में
कुछ ऐसे सपने आए होते,
हर पेट में रोटी
हर हाथ में कलम
और हर होंठ पे मुस्कराहट

भारत उदय -2

एक एक जन का घर नही
स्कुलो में नही छात
फुटपाथ पे सोये बच्चे
पेटों में नही भात
आती नही हैं लाज
करते हैं
भारत उदय की बात

भारत उदय - 1

चंद नन्हे कदमो की दूरी पर
एक आकाश
लाखो जगमगाते सितारे
और हजारो रोशन चाँद
सड़क किनारे फुटपाथ पर
और छोटे शहरों के छतविहीन
प्लेटफार्म पर
मीठी सर्दियो में
लेम्प्पोस्ट की रौशनी से
गर्माहट तापते
नींद का आश्वादन करते
अधखुली आँख से
देख रहे हैं वो भी
"भारत उदय"

अतीत यौवन और आज

जन्मदिवस की अथाह खुशी
और नववर्ष में समाने का वो क्षणिक उत्साह
घने कोहरे के आगोश में ठिठुरती कलम
सोचने लगी अतीत यौवन और आज

धुल धूसरित बालपन
माँ का स्नेह, पिता की फटकार,
मार दुलार
वो खेल खिलौने
वो छोटा सा बांस बल्लियो का घर
और उसके कोने कोने
बेसुध नींद , वो प्यारे बिछौने ।

ईंट पत्थरों की कठोर दीवारों में
कसमसाई,
डनलप के गद्दे, मंहगे पलंग,
छटपटाती
करवट बदलती नींद
महकते कमरे में याद आती
माटी की सौंधी महक।

बचपन कैशोर्य और यौवन के
क्षीण सीमारेखाओ को पहचानता
आधी नींद के बाद जगा
मैं और मेरी कलम
सोचने लगी, अतीत यौवन और आज।

किशोर मैं , अनियंत्रित झोंका
पालविहिन नौका,
उतकृष्ट मानस का अभावमय अंत
उद्दंड मैं सामान्य विद्यार्थी॥

यौवन से सामना
अनुराग, प्रेम, और
असीम कल्पना
चाह क्षितिज स्पर्श की
मंजिले अनेक थी
राह एक भी नही
पथ एक तलाशता
चाँद को था चाहता
यूँही रात ढल गई
जिंदगी बदल गई।

ओश बिखरी पत्तिया
चमक गई किरण उषा
पक्षियो का कुजन गूंजा
एक नई भोर थी।

एक नई भोर थी,
सारे राह मोडती,
पत्थरों की राह थी
रोटियों की दौड़ थी।

गाँव शहर छोड़कर
आ गया महानगर
वायु दम घोटती
हर पल भाग दौड़ थी,
फुरशत के पल कहाँ?
आधी रात में जगा
मैं और मेरी कलम

बचपन कैशोर्य और यौवन
क्षीण सीमारेखाओ को पहचानता
आधी नींद के बाद जगा
मैं और मेरी कलम
सोचने लगी,
अतीत यौवन और आज।

भारतीय रेल का सफर १९७५-२००५

आज फ़िर एक बार स्लीपर क्लास में बैठा अपने विचारो को लेखबद्ध करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। आज तक मैंने जितना भी लिखा हैं या लिखने का प्रयास किया हैं अधिकांश मैंने इन्ही ट्रेनों की भरी भीड़ और छुक छुक , धडाक धडाक तथा पंखो के संगीत की पर्शध्व्नी ही लिखा है । इन ट्रेनों में मेरे विचारो और चिंतन का उत्कर्ष होता हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं । सबसे बड़ा कारण सायद यह हो की शहरो की भागदौड़ से दूर ट्रेनों में घंटो का सफर कुछ वक्त देता हैं विचार चिंतन के लिए, आत्ममंथन के लिए। एक कारण यह भी हो सकता हैं की सारे भारत की, भारत की समृद्ध संस्कृति, भारतीय जन जीवन , सभ्यता का सम्मलेन होती हैं ट्रेने ।

विचारो की गहन तंद्रा में जब मैं डूबा रहता हूँ तो अचानक लस्सी लस्सी, चाय चाय, बाबु, अल्लाह के नम पर, राम के नाम पर जैसे शब्द, वाक्य विचलित भी करते हैं, विचारो को वाधित करते हैं। और कभी कभी तो सहयात्री का मदिरापान , धुम्रपान मन में क्रोध उत्पन्न करता हैं ।

जब युवा छात्र छात्राओ की तोलिया ट्रेन में हो तो बहुत आनंद आता हैं। मन उनके साथ किशोर हो जाता हैं, बहकने लगता हैं। तभी किसी नवयौवना या नवयुवक का अनुरोध भरा स्वर " अंकल आप यह बर्थ ले लो " सोचने को मजबूर कर देता हैं की तुम एक दशक पहले के प्रीवियस जेनरेशन से हो। फ़िर मैं अभिभावक बन जाता हूँ। उनको कोई कष्ट न हो, कोई परेशां न करे, कोई उठाईगीरा उनका कोई सामन न चोर ले , मैं ध्यान रखने लगता हूँ।
आजकल अच्छा अंकल बनने लगा हूँ मैं । कुछ वर्ष पहले झुंझलाता था , कह देता था मुझे अंकल नही भइया बोलो।

आजकल ट्रेन का सफर काफ़ी आरामदायक हो गया हैं। सबसे बड़ा सुधार जिसे मैं विप्लवकारी संज्ञा दूँगा वो हैं लगभग सभी गाडियो में पेंट्री कार का प्रचलन होना और लम्बी दुरी के आरक्षित कोचों में अनाधिकार सामान्य यात्रा के यात्रियो का प्रवेश लगभग बंद होना। पहले तो भोर होते ही अनाधिकार प्रवेश शुरू हो जाता और रात में ऐसे यात्री इन्ही आरक्षित डिब्बो के फर्श पर तानकर सो जाया करते थे। जिससे नींद कोशो दूर रहती थी लेकिन अब स्थिति में बदलाव हैं। अब भी कुछ ऐसा माहौल होली दिवाली, आदि उत्सव के मौको पर देखने को मिलता हैं। उत्सव के समय विशेषकर जो ट्रेने पूर्वांचल लांघती जाती हैं उनमे ये परिस्थितिया सामान्य हैं।

१९८० के आसपास मैं असम की लोकल ट्रेनों में लगभग ५० किलोमीटर का सफर किया करता था, दो घंटे का सफर, स्टीम चालित इंजन, खिड़की के पास बैठने का मोह, और आँखों में घुसता कोयला। काले हो जाते थे कपड़े। वे बर्थ काठ की होती थी जिस पर धुल धुएं की अच्छी खासी परत होती थी। मुझे याद हैं पहाडी पर चदते वक्त उन इंजनो का दम निकलने लगता था। ओश भरी और बारिश से भीगी पटरियों में पहिये फिसलने लगते, डिब्बो को खीच नही पाते, तो आगे और पीछे दो इंजन लगाये जाते। कभी कभी घुमावदार पटरियो पर रेत भी डाली जाती , फ्रिक्शन पैदा करने के लिए। आजकल स्टीम इंजन प्रचलन में नही हैं, पर उन इंजनो की आवाज और उसपर रची बाल कविताये - बालगीत आज भी कितने ही बच्चो के मन में उत्सुकता पैदा करती होगी। " छुक-छुक करती आई रेल " अब रेल छुक छुक नही धडाक धडाक करती हैं ।

उस समय के डिब्बो में टिमटिमाते २० वाट के बल्ब होते थे और काले छोटे पंखे। उनमे से अधिकतर पंखो को चलायमान करने के लिए कलम या पतली डंडी से मैनुअली घुमाना पड़ता था । ये नुस्खा आजकल भी कभी कभी प्रयोग में आता हैं।

आज रात की ही तो बात हैं , एक युवा छात्रा अपनी सहेली से कह रही थी, "यार मुझे ये समझ नही आता की इतना बड़ा आइना यहाँ क्यूँ लगाया गया हैं"। " मैं बार बार अनचाहे ही ख़ुद को आईने में निहार लेती हूँ"। मैं कहने ही वाला था की ये आइना तुम्हारे सौन्दर्य को निहारने के लिए ही हैं, तभी अंकल वाला रोल याद आ गया। ट्रेनों में अकेली लड़किया भी सफर करने लगी हैं, इसका मतलब ये नही की पुरूष वर्ग भद्र हुआ हैं, यह तो उनकी बढती आत्मनिर्भरता , बेबकिपन, शिक्षा और आत्मरक्षा की भावना का फल हैं। वरना पुरुषवर्ग (सहयात्री) में से आधे से अधीक जो की अकेले सफर कर रहे होते हैं, उनकी लोलुप आँखे टटोलती रहती हैं उनका यौवन। उम्र तक का लिहाज नही होता । ५०-६० वर्षीय वृद्ध भी कुछ ऐसे होते हैं जो लड़कियों से किसी न किसी बहाने सटने, उनको स्पर्श करने को लालायित होते हैं।

शौचालयों की अवस्था कुछ वर्ष पहले अत्यधिक गन्दी होती थी। फ्लश का प्रयोग काफ़ी लोग नही करते थे और पानी की कमी के कारन भी शौचालय गंदे रहते थे। और ऐसी ऐसी चित्रकारी उफ , गन्दी पोर्नोग्राफी भी उसके सामने कुछ भी नही। इसमे कुछ सुधर यु आया की शौचालयों की दीवारों पे लेमिनेट्स सनमाईका चिपकाये जाने लगे , जिसपर कलम से लिखना और कुरेदना कम हो गया। आजकल बोगियो को भी सप्ताह में कम से कम एक बार दिसिंफेक्टेड किया जाने लगा हैं। बोगियो की आंतरिक साज सज्जा में काफ़ी बदलाव आया हैं। बरथे aaramdayak बनने लगी हैं। बर्थ जिन लोहे की पत्तियो और मोटी जंजीरों से लटके होते हैं उनपर रबड़ और रेक्सीन चढाई जाने लगी हैं । पहले ऐसा नही होता था , ठण्ड में ये धातु काफी ठंडे हो जाया करते थे, जिससे स्पर्श होने पर ठण्ड का करंट सा लगता था। अब बर्थ चौडी और कम्पार्टमेंट स्पेसियस हो गया हैं । चूंकि अब अनारक्षित यात्री प्रवेश नही करते तो सहयात्रियो की आपसी समझ से दिन में भी बर्थ लगाकर सो सकते हैं। पहले लोग पीने के पानी की केतली, बोतल, मयूर जग लेकर चला करते थे, और बोतलों को भरने के लिए स्टेशन का इन्तेर्जार होता था। स्टेशन के नल पे लम्बी कतरे हुआ करती थी। वो महिलाये जिनके पति या बच्चे पानी भरने के लिए कतार में लगते उनकी जान सूखती रहती की कही ट्रेन चल न पड़े, ट्रेन छुट न जाए। कभी कभी पानी भरने गया सहयात्री दो बोगी पीछे ही ट्रेन में चढ़ पाता। तब तक बेचारी वो महिला आधी हो जाती थी। अब ऐसे लोग कम ही दीखते हैं । ज्यादातर लोग एक दो लीटर की पानी की बोतल ट्रेन में ही खरीदना पसंद करते हैं।

आजकल सभी बड़े स्टेशन में डिब्बो पे पानी चढाने की व्यवस्था हैं। उससे शौचालय गंदे नही होते और यात्री भी आजकल ट्रेवल मिन्देद हो गए हैं। वो अपने साथ टूथपेस्ट, सोप, मग इत्यादि लेकर चलना नही भूलते इसलिए वो भी ट्रेन में साफ़ सुथरे दिखाई देते हैं।

बेशक टी टी और पुलिस वालो की आमदनी में आजकल कुछ फर्क पड़ा हैं पर सहूलियत अब इन्हे भी हैं।

वक्त के बदलाव के साथ साथ कुछ नई जरूरते महसूस की जा रही हैं।

१. जैसे की प्रत्येक कम्पार्टमेंट में या कूप में एक मोबाइल चार्जर पॉइंट हो.
२.आरक्षित डिब्बो में बेद्डिंग की व्यवस्था
३. अकेली महिलाओ के लिए एक महिला कोच जिसमे टी टी और पुलिस बल भी महिला ही हो।
४। स्टेशन परिषर में ऐसी व्यवस्था की कोई शराब, सिगरेट डिब्बो तक न ले जा सके।
५.एक रेल लाइब्रेरी जिसमे मैगजीन, पुस्तके रिटर्न एबल बेसिस पर किराये पे उपलब्ध हो।
६.युवा छात्रों और ग्रुप के लिए एक सेपरेट बोगी जिसमे वो अगर शोरगुल भी करे और मस्ती में भी चले तो किसी बीमार, वृद्ध सहयात्री को परेशानी न हो।
७.कैटरिंग व्यवस्था को आर्गानैज करना , की आर्डर सुबह ही ले लिया जाए और टाइम पे सर्व हो। चाय काफ़ी, आमलेट ऐसे चिल्लाने की व्यवस्था बंद हो। एक वेटर हर आधे घंटे में डिब्बे में फेरी लगा जाए।
८.ट्रेन में हल्का संगीत बजता हो, पब्लिक एड्रेस सिस्टम से हलकी आवाज में ट्रेन की स्थिति की उद्घोषणा, किसी वजह से बीच में रुके तो कारण की घोषणा होनी चाहिए
९.रात के समय आरक्षित डिब्बो में कोई प्रवेश ना कर पाये चाहे वो केटरिंग वाला ही क्यूँ न हो । इस्सकी भी व्यवस्था होनी चाहिए।
१०.टी टी, डॉक्टर, गार्ड, पुलिस कहाँ हैं इसकी भी सूचना यात्रियो को होनी चाहिए।
११.डिब्बो में सेट-लाईट फ़ोन की व्यवस्था।

Sunday 28 September, 2008

माँ

गंगा

इतने पापियो को
लगातार दोषमुक्त करना
लाखो टन पाप
निरंतर अपने में समेटना
इतना उदार ह्रदय
इतना उन्नत वक्ष
तुम ही कर सकती हो माँ

तुमसे ही सीखा हैं
भारतीय माताओ के अन्तः ने
संतानों के विछोह में
वक्ष स्थल भिगोना
और गौ माताओ ने
लरजते नेत्रों से , ताकते हुए बछडे को,
दूध पिलाने की आस में
ग्वाले को दूहने देना ।

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर आतंकी हमले के प्ररिप्रेक्ष्य में

चूमती थी आकाश
दर्प था उसको
अभेद्य था अजेय था
लाखो लाखो के सपने
जहाँ बनते थे , बुनते थे
वो सपनो के सहर का गुरुत्वाकर्षण
अब ना रहा।

ऐसे ही ढहते हैं सपने,
ऐसे ही नेस्तनाबूद हो रहा हैं सच
बुराईया जीत रही हैं
धर्म की हानि की सीमा क्या हैं प्रभु ?
कब आओगे?

दर्प तोड़ने का तो तुम्हे हक हैं
पर सपने तोड़ने का ?

अजनबी

सायो की तरह
शक चलता हैं मेरे साथ
ढूंढता रहता हूँ
हर अजनबी चेहरे में
बना रहता हैं एक अंदेशा
भयावह
जबसे पढ़ा हैं इश्तेहार
लावारिश वस्तु न छुए
किराये पर ना दे अजनबी को मकान

मेरी धर्मनिरपेक्षता

वैसे तो मैं कभी भी अपने को धर्मनिरपेक्षता के दायरों से मुक्त नही कर पाया , ना ही कट्टर हिंदू ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने का ही मुझपर कोई असर रहा और न ही विश्व हिंदू परिषद् , शिवसेना, या bajrang दल के ब्रेन वाशिंग भाषणों से।

मुझ पर तब भी कोई असर नही हुआ जब हिंदू मुसलमानों की मौत का तांडव हुआ अयोध्या में। अफ्सोश हुआ था धर्मनिरपेक्षता की असफलता पर , अफसोश हुआ था मस्जिद के टूटने का, और निर्दोषों की मौत पर। पर मेरी धर्मनिरपेक्ष मानसिकता पर जरा सा भी असर नही हुआ । मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति हमेशा ही मेरे मन में एक सॉफ्ट कार्नर रहा हैं। विश्व हिंदू परिषद् का जन जागरण अभियान मेरे उस सॉफ्ट कार्नर को कभी प्रभावित नही कर सके।

ना ही मेरे दादा दादी, पिता-माँ का संकीर्ण मनोभाव। ज़रीना के घर चाय ..... हे भगवान् , नही बेटा तुम्हे उनके घर का नही खाना चाहिए । उनके घर मँआश बनता हैं, तुम्हे अपने कुल पूर्वजो की मर्यादा , नीति नियमो का पालन करना चाहिए।

एक चाय की प्याली जहाँ मेरे कुल पूर्वजो की मर्यादा अतिकर्म कर रही थी, और मैं था जो ज़रीना के सामने विवाह प्रस्ताव रख रहा था।

ज़रीना के प्रेम, उसके परिवार से मिली आत्मीयता मेरे उस सॉफ्ट कार्नर को और भी सॉफ्ट करती जा रही थी। उस आत्मीयता और प्रेम को मैं धर्मनिरपेक्षता ही समझता रहा , हमारी महान भारतीय संस्कृति की संरख्छिका।

ज़रीना जब भगवान् कसम खाती थी तो लगता ही नही था की वो स्वाभाविक नही हैं । वो अपनी कापियों का प्रारम्भ "श्री" या "जय सरस्वती माँ " से किया करती थी । ये सब मुझे बहुत अच्छा लगता ।

पर विवाह प्रस्ताव ? अरे हां ... वो तो मैं भूल ही गया था। मैंने ज़रीना से कहा " मेरे लिए विवाह प्रस्ताव आ रहे हैं, माँ की तबियत ठीक नही रहती सो परिवार वालो को अब मैं नही रोक सकता, मुझे शादी करनी होगी, क्योँ न हम कोर्ट मैरिज़ कर ले ? आज कल कोर्ट मैरिज़ काफ़ी आसान हैं । हम दोनों को पता था की मेरे घर वाले इस सम्बन्ध को कभी स्वीकार नही करेगे।

इसके बाद ज़रीना ने जो कुछ मुझसे कहा , मेरी धर्मनिरपेक्षता पर हलाँकि उसका भी कोई प्रभाव नही पड़ा , लेकिन उसकी सरते अविश्वश्नीय , मैंने उसकी सरतो को उसकी मजबूरिया समझकर अपने आपको धर्मनिरपेक्षता की जंजीरों में और जकड लिया । वो चाहती थी की मैं इस्लाम कबूल कर लू , मुझे किसी धर्म से कोई ऐतराज नही था , ना उनके सिधान्तो से , ना उनकी पूजा पद्धति से । इस्लाम के कठोर उपासना के नियम मुझे अच्छे लगते थे और मेरा भी मानना यही था की भगवान् निराकार ही हैं, मुझे अपने हिन्दुओ के साधू पंडित और ३६ करोड़ देवी देवताओं का अस्तित्व, पूजा , कर्मकांड ढोंग लगते थे। पर मैं एक इश्वर पर भरोषा करता हूँ और वही विश्वाश हमेशा मेरा सहारा बनता हैं।

ज़रीना की दूसरी शर्त सुनकर मेरा रग रग खौलने लगा । जो ज़रीना मेरे प्रेम में ये कहती थी के मैं वेगेतारियन हूँ, उसकी दूसरी शर्त थी के मैं गो मांश का भक्षण करू । मेरी आँखों के सामने अपनी माँ का चेहरा आ गया । जो रोज गाय को रोटी देती थी। बचपन में जब मैं बीमार रहता था तो वो गाय को रोटी मेरे हाथों से दिलवाती और गौ माता के पैर चुने को कहती। मेरे घर में एक तस्वीर रखी हुयी जिसमे गोऊ माता के अंग अंग में इश्वर का निवास बताया गया था। बचपन में एक बार मैं बहुत ज्यादा बीमार हुआ तो डॉक्टर ने मांश मछली सेवन करने का सुझाव दिया था, पर पिताजी ने साफ़ मन कर दिया के चाहे ये मर जाए पर मैं अपने धर्म को भ्रष्ट नही होने दूँगा, अगर इसके सरीर को शक्ति चाहिए तो वो गाय के दूध से पूरी हो जायेगी। और रोज माँ मुझे सुबह साम गाय का दूध पिलाने लगी। ऐसी अमृतमयी माँ का मांश भक्षण ?? मैंने ज़रीना ko त्याग दिया ।

और ज़रीना ने भी मुझे बधाई दी " अगर तुम्हे जीवन देने वाली माँ के तुम नही हो सकते तो मेरे लिए मैं तुमसे क्या आशा रखती ? इन सब्दो ने मेरा साहस तो बढाया ही साथ ही साथ धर्मनिरपेक्षता के charदिवारी का और मजबूत कर गया।

जब भी कश्मीर में हिंदू मरते तो मैं सीमापार से आतंकवाद (हमारे नेताओ की भाषा) सोचकर चुप हो जाता, और अगर एक दो कश्मीरी मुसलमान हलक होते तो मानवाधिकार के दुहाई देता । मेरी धर्मनिरपेक्षता ने कुछ ऐसा रूप ले लिया था के कारगिल yuddh के पश्चात मेरी भावनाए पाकिस्तान विरोधी तो हो गई पर धर्मनिरपेक्षता अपनी जगह अडिग थी। मेरा धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अवधीत ही रहा आजतक।

११ तारीख का मैं ब्रह्मपुत्र मेल में असम जाने के लिए बैठा, मेरी टिकेट दो पार्ट में थी, डेल्ही से कानपूर और कानपूर से तिनसुकिया । कानपूर में जब मैं अपनी बर्थ चेंज की तभी एक मुस्लिम परिवार कोच में आया । एक अब्बा अम्मा दो खाला और दो बच्चे । ६ जनों का परिवार। उनकी एक टिकेट दूसरे कोच की थी और मेरे मेरी और मेरे भाई के बर्थ १२ और १३ उनके बर्थो की सीरीज़ को बिगाड़ रही थी। मेरे सॉफ्ट कार्नर ने उनकी साड़ी प्रॉब्लम साल्व कर दी, चूंकि ये परिवार मुझसे ज्यादा बातचीत नही कर रहा था इस्सलिये हिलना मिलना नही हुआ।

उन बच्चो के खाला काफ़ी हसीं थी, (माफ़ करे मेरी नजर अभी उसकी तरफ़ पलट गई थी, बगल वाली बर्थ में ही तो उनींदी हो रही हैं ) इस लड़की की मासूमियत, खामोसी, मुस्कराहट किसी का भी कलेजा टटोल सकती हैं। आवाज में कानपुरी लहजा और शऊर तो गजब का , मजाल हैं जो बदन का एक रेशा भी दिख जाए। मैं उस्सकी पवित्रता और मासूमियत का फेन होता जा रहा था।

उन बच्चो के अब्बा ने किसी भी भिखारी को अभी तक खली हाथ नही लौटाया था । चाहे वो भजन गाता या अल्लाह के नाम पर माँगता, गाने गाता या झाडू लगाकर मांगता, झूठ मूठ के गूंगे गुन्गियो, लंगडे लंग्डियो, अंधे आंधियो, सभी को एक ही रेट से दिया जा रहा था १ रूपया । उसका ये भेदभाव परे व्यवहार , धर्म भेद से परे भीक्स्चा दान मुझे धर्मनिरपेक्षता को रेखांकित करता सा लगा।

रेल गाड़ी रूकती सरकती, राजधानी एक्स्प्रेस्सो को पास देती आज कामख्या पहुची। कामख्या भारत का प्रसिद्ध तीर्थ हैं , यहाँ नीलांचल पहाड़ पर माँ कामख्या का प्राचीन मन्दिर स्थित हैं। यहाँ पंडे पंडितो की भरमार होती हैं।
और यही वह घटना घटी जिसका प्रभाव मेरी धर्मनिरपेक्षता पर पड़ा हैं।

कल अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर इस्लामी उग्रवाद के शिकार हो गए। इसका अमेरिका और बाकी अधिकाँश देशो पर जो प्रभाव पड़ा हैं , अमेरिकी अंतर्मन को जिस मात्रा के झटके की कल्पना हम कर सकते हैं उससे भी बहुत जोर का झटका लगा हैं आज मेरी धर्मनिरपेक्षता को।

कामख्या स्टेशन पहुचते ही एक पंडितजी कोच में प्रवेश कर गए। उनके एक हाथ में एक डोलची थी , जिसमे माता की फोटो सजाई हुयी थी। और वे सभी को तिलक करते जा रहे थे व प्रसाद दिए जा रहे थे। मैं ऊपर वाली बर्थ पे लेता कुछ लिखता जा रहा था। और इधर उधर निहार भी रहा था। पंडितजी ने ऊपर वाले बर्थ यानी मेरी तरफ़ देखा पर या तो उन्होंने मुझे nastik जाना होगा या ऊपर वाली बर्थ तक उनके हाथ नही पहुचने की वजह से उन्होंने मुझे प्रसाद से वंचित रखा। और मैं भी विशेष आग्रही नही था।

जब पंडित जी उन खाला अम्मी और बच्चो को प्रसाद अनुगृहित कर रहे थे(अब्बा सोये हुए थे) तो वे सभी प्रसाद लेने में हिचक रहे थे। लेकिन पंडितजी के दुबारा अनुरोध लीजिये लीजिये कहने पर वो मना नही कर सके।
अब वे किन्ग्कार्ताव्यविमूद्दा से नजर आने लगे। बड़ी खाला के तो जिस हाथ में प्रसाद था वो कापने लगा।मासूम hasina खिड़की के किनारे बैठी थी, उसने चतुराई दिखाई। उसने सबके हाथ से प्रसाद के दाने अपने हथेली में ले लिए। और उसका हाथ धीमे धीमे खिड़की की ओर बढ़ने लगा, मुझे अहसास हो गया वो क्या करने वाली हैं, मैं ऊपर वाली बर्थ से ही झुककर अपना हाथ ज की मुद्रा में नीचे बढाया, पर मेरा हाथ उसे नजर आने से पहले ही उसकी हथेली खुल गई थी।

और जब उसने मेरे बढे हुए हाथो को देखा तो उसकी पलके झुक गई, तब से अब तक वो मुझसे नजरे नही मिला पाई हैं। आज इस घटना का प्रभाव मेरे धर्मनिरपेक्षता पर पड़ा hain । आज शायद मैं धर्मनिरपेक्ष नही रहा।
अब शायद मुझे ईद की सेवेयियो में वो मीठास नही नही मिलेगी जो आज से पहले मिलती थी।